प्रजासत्ता नेशनल डेस्क|
मोदी सरकार के खिलाफ एकजुट हो रहे विपक्षी दलों को पटना की पहली मीटिंग में तगड़ा झटका लगा है। बैठक में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच तीखी नोंकझोक हुई। बैठक में आप का शीर्ष एजेंडा दिल्ली अध्यादेश था, जिसके लिए वह सभी विपक्षी दलों से समर्थन मांग रही थी। उन्होंने गुरुवार को अल्टीमेटम दिया कि अगर कांग्रेस संसद के अंदर अध्यादेश पर समर्थन का वादा नहीं करती है तो आप नेता बैठक से बाहर चले जाएंगे। जब बैठक के बाद प्रेस वार्ता हुई तो उससे आप नेताओं ने अपनी दूरी बना ली।
प्रेस कॉन्फ्रेंसके बाद आप पार्टी की तरफ से एक बयान जरूर जारी किया है। जिसमें कहा कि पटना में समान विचारधारा वाली पार्टी की बैठक में कुल 15 दल शामिल हुए। जिनमें से 12 का राज्यसभा में प्रतिनिधित्व है। कांग्रेस को छोड़कर अन्य सभी 11 दलों ने ने स्पष्ट रूप से केंद्रीय अध्यादेश के खिलाफ अपना रुख स्पष्ट किया। घोषणा कि वे राज्यसभा में इसका विरोध करेंगे।
आम आदमी पार्टी ने कहा कि कांग्रेस ने अभी तक काले अध्यादेश पर अपना रुख सार्वजनिक नहीं किया है। हालांकि, कांग्रेस की दिल्ली और पंजाब इकाइयों ने घोषणा की है कि पार्टी को इस मुद्दे पर मोदी सरकार का समर्थन करना चाहिए। लेकिन बैठक में कांग्रेस ने समर्थन नहीं दिया। कांग्रेस की चुप्पी उसके वास्तविक इरादों पर संदेह पैदा करती है।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार आज की बैठक में उमर अब्दुल्ला और अरविंद केजरीवाल के बीच नोकझोंक हुई। इसके अलावा कोषाध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और केजरीवाल के बीच भी तनातनी देखने को मिली। फिलहाल कांग्रेस दिल्ली अध्यादेश के मुद्दे को लेकर आप के साथ खड़ी नजर नहीं आ रही है। इसी पर आम आदमी पार्टी अब कांग्रेस पर हमलावर हो गई हैं।
फिलहाल ऐसा लगता है कि केजरीवाल अकेले चलने के मूड में आ गए हैं। कांग्रेस से समर्थन नहीं मिलने के बाद वह और उनकी पार्टी फिलहाल विपक्षी एकता से दूरी बनाती हुई दिखाई दे रही है। ऐसे में केजरीवाल के पास सिर्फ और सिर्फ के चंद्रशेखर राव वाला विकल्प है। यानी कि अपने दम पर भाजपा से मुकाबला करना।
पार्टी की ओर से घोषणा की जा चुकी है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में वह चुनाव लड़ने जा रही है। इसके लिए केजरीवाल ने अलग-अलग राज्यों में प्रचार भी किया है। पंजाब के बाद हरियाणा में भी आम आदमी पार्टी अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही है। ऐसे नहीं कहा जा सकता है कि भले ही विपक्ष एकजुट होकर चुनाव लड़े। लेकिन अगर केजरीवाल अकेले दम पर मैदान में उतरने की कोशिश करेंगे तो विपक्षी दलों के लिए चुनौती और भी बड़ी हो सकती है।