“लड़दीयाँ फौजां और नाम सरदारों के”
सभी पार्टियों के कार्यकर्ता की दशा एक जैसी ही है| चुनाव लोकसभा का हो या विधानसभा । दरबार में सियासत के प्यादे बिछा कर हर कोई अपनी पारिवारिक राजनीति को संजीवनी देने में लगा हुआ है। व्यवस्था वही है बस मताधिकार मिला है। चलो हम जैसे आम इंसान अंत में उस दिन गर्व महसूस करते हैं कि अपना अधिकार उपयोग किया। हमारी ज़िंदगी मे कोई खास बदलाव नहीं आता, अब हमें उपेक्षाएं भी नहीं रही हैं। सोच में हूँ वो कार्यकर्ता जो दिन -रात एक कर देंगे, ना खाने की होश ना कपड़े बदलने का समय आखिर कंधे तो इस्तेमाल इनके ही होंगे।यह वो तबका है जो लाठियां खायेगा, अपने नेता के विरुद कोई बात नहीं सुन सकता, जितना चुनाव को दिल से यह लेते हैं शायद ही किसी नेता के घरवाले लेते होंगें। रात भर शहर की दीवारों पर पोस्टर चिपकाना, सुबह ये ध्यान रखना किसी ने फाड़ तो नहीं दिया। अगर किसी ने फाड़ा हो तो ऐसे महसूस करते हैं जैसे उनकी कमीज़ उनके ऊपर फाड़ दी किसी ने। कोई दीवार ,छत ऐसी नहीं बचती जहाँ तक इनकी पहुंच ना हो।हम सुबह उठ कर देखते है रंग विरंगी छतें। रैली का आयोजन, दरियां बिछाना, कुर्सियां लगाना कभी-कभी तो तेज़ हवा में तंबू के बंम्बू देर तक पकड़ के ख़ड़े रहते हैं। जब तक कोई आयोजन कामयाब न हो जाये तब तक चैन से नहीं बैठते। यह युवा शक्ति है, इसको पहचाना पड़ेगा अगर किसी के साथ कोई बड़ा नाम नहीं है तो क्या हुआ। यह वही हैं जो आपकी कामयाबी के पीछे हैं, इनके दम पर जीत का शेहरा पहन के वर्षों से हकूमत करते आ रहे हो। हमारा क्या है, हमारी पहुंच से तो आप पहले ही बाहर हो। कम से कम इनकी पहुंच में तो रहो अगर कार्यकर्ता नॉट रिचेवल हुआ ना तो सारे नेता लोगों की वैल्यू इतनी है जितनी विदआउट नेटवर्क सिम कार्ड की है और उसके बाद इनको एक ही काम आता गेम खेलना।