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लॉकडाउन का दर्द-ए-दास्तां अनुभव सिन्हा की भीड़

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Bheed Movie Review: अश्विनी कुमार। अनुभव सिन्हा की भीड़ (Bheed) दो मायनों में बेहद खास है। पहली ये कि ये भीड़, कोविड के बाद देशभर में हुए लॉकडॉउन (Lockdown) का ऐसा सच्चा दस्तावेज है, जो अब से पहले रिलीज़ हुई फिल्मों और वेब सीरीज़ नहीं दिखा पाई हैं। और दूसरा ये कि भीड़, इस बात का भी सुबूत है कि मार्केटिंग डिपार्टमेंट में बैठे कुछ मार्केटिंग जीनियस किसी भी फिल्म के रिलीज़ के पहले कैसे उसे बिगाड़ देते हैं।

भीड़ का पहला टीज़र जब सामने आया, तो उसे ऐसा दिखाया गया जैसे कि कोविड के बाद हुए लॉकडाउन और 1947 में हुए भारत के विभाजन के हालात एक जैसे थे। लॉकडाउन और पार्टिशन के इस कंपैरिज़न को देख ऐसा लगा कि ये फिल्म लॉकडाउन के दर्द को दिखाने की बजाए, एजेंडा सेट करने निकली है। एक बुरे मार्केटिंग आईडिया का बैक फायर होना, एक बेहतरीन फिल्म का कितना बुरा हो सकता है, ये भीड़ से पता चलता है।

मगर किसी भी फिल्म को उसके मेरिट पर कसना चाहिए, ना कि मार्केटिंग प्लान पर। और यकीन मानिए कि भीड़ की कहानी इतनी सच्ची है कि आपको इसमें अपनी, अपनों की, अपने आस-पास की तस्वीरें दिखने लगेंगी।

इस बात को नोट कर लीजिए कि भीड़ आपको एंटरटेन नहीं करेगी। यानि अगर आप थियेटर में एंटरटेनमेंट और टाइम पास के मकसद से जा रहे हैं, तो भीड़ आपके लिए बिल्कुल नहीं है। दूसरी बात कि अनुभव सिन्हा ने भीड़ को ब्लैक एंड व्हाईट बनाया है, ताकि आप रंगों में ना खोएं …. लॉकडॉउन के वक्त में सैकड़ों किलोमीटर तक अपने घर की ओर पैदल ही चल पड़े लोगों का दर्द समझें।

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भीड़ की कहानी झकझोरती है

अपने पहले ही सीन से भीड़ आपको झकझोरना शुरू कर देती है, जहां लॉकडाउन के बाद अपने घरों तक पहुचंने की बेताबी में प्रवासी मजदूरों की टोली, ट्रेन ट्रैक पर चलना शुरू कर देती है, क्योंकि सड़कों पर बंद रास्ते और पुलिस की लाठी मिलेगी। इस गलतफहमी में कि सारी ट्रेन बंद हैं, भूखे और थके-हारे ये लोग रेल की पटरियों पर सो जाते हैं और एक ट्रेन की आवाज़ भी उनकी नींद नहीं खोलती। उनकी नींद कभी नहीं खुलती।

चेकपोस्ट की सच्चाई

फिर ये कहानी एक तेजपुर बॉर्डर के पास आकर ठिठक जाती है, जहां से लोग अपने घर पहुंचने का रास्ता तलाश रहे हैं। मगर उनके पहुचंने से पहले वहां पुलिस बैरिकेडिंग कर देती है। सीओ तेजपुर, यंग पुलिस इंस्पेक्टर सूर्य प्रताप सिंह टीकस को इस टेक पोस्ट का इंचार्ज बना देते हैं। इंस्पेक्टर राज सिंह, अपनी मूंछों पर ताव देते हुए भी, छोटी जात के इस काबिल अफसर को अपना इंचार्ज बने देख दिल मसोसते रह जाते हैं।

ये भीड़ बहुत रंग दिखाती है

इसके बाद तेजपुर के इस चेकपोस्ट पर वो नज़ारा दिखता है, जो कमोबेश देश के हर हिस्से में दिखा। एक ओर बड़े-बड़े मॉल, दूसरी तरफ़ भीड़ बदहाल। अनुभव सिन्हा ने को-राइटर सौम्या और सोनाली जैन के साथ मिलकर, इस चेकपोस्ट पर लॉकडाउन का ऐसा मंजर रचा है, जहां सीमेंट मिक्सर के अंदर घुटती हुई सांसों के साथ अपने घर पहुंचने को बेताब लोग हैं, तो दिल्ली में हुई तबलीगी ज़मात की ख़बरों के बीच तेजपूर चेकपोस्ट के सामने दूसरों की मदद करते मुसलमानों को मिलती गालियां भी हैं। इस भीड़ में फॉर्चुनर के अंदर बैठी गीतांजली भी है, जो आदर्शवाद का परचम तो लहराती है, मगर उसका ड्राइवर जब पुलिस को घूस देकर चेकपोस्ट पार करने की पेशकश करता है, तो एक बार भी उसकी ज़ुबान नहीं खुलती। इस भीड़ में पूर्व विधायक का वो रिश्तेदार भी है, जो बात-बात भीड़ उकसाता है और पुलिस को देख लेने की धमकी देता है। इस भीड़ में सिक्योरिटी गार्ड बलराम त्रिवेदी भी है, जो घरवालों के सामने नाक कटने के डर से अपनी नौकरी के बारे में झूठ बोलता है, और समाज के झूठे जात-पात के फेर में पड़कर इंस्पेक्टर सूर्य कुमार सिंह टीकस को धमकी भी देता है, कि पुलिस की वर्दी में ना होते, तो पेड़ से बांधकर मारते। भूख से बिलबिलाते बच्चों की चीख सुनकर, उन्हें पीटकर चुप कराते मां-बाप, मॉल में घुसकर खाना खरीदने की इजाजत ना होने पर, उसे लूट लेने की धमकी देने वाला एक बुजुर्ग… ये भीड़ बहुत रंग दिखाती है, ब्लैक एंड व्हाइट होने के बाद भी।

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इस भीड़ में छोटी जात के इंस्पेक्टर टीकस और बड़ी जात वाली डॉक्टर रेनू शर्मा का वो रिश्ता भी है, जो आपका दिल चीरेगा और फिर उस पर मरहम भी लगाएगा।

…तो इंसानियत जीतती है

भीड़ में उम्मीद है कि जब सरकार, सिस्टम फेल हो जाए…. तो इंसानियत जीतती है। अनुभव सिन्हा की भीड़ आपको संभलने नहीं देती, ना ही आपको चीख-चीखकर बताती है कि अपनों का दर्द समझने में हम कितने नाकाम हुए हैं, बल्कि बिना शोर मचाए ये फिल्म, इसकी कहानी हमें आईना दिखा देती है कि बतौर इंसान हम क्या हो गए हैं। सबसे खास बात ये कि ये फिल्म, वॉट्सएप यूनीवर्सिटी की भी पोल खोल देती है।

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कलाकारों का अभिनय कौशल

सूर्य कुमार सिंह टीकस के किरदार में राजकुमार राव ने जाति और सरकारी मजबूरियों में खुद को ऐसे पीसते दिखाया है, जैसे किसी कलाकार ने अपने सारे कपड़े उतार दिए हों। इसके बाद भी वो नहीं, बल्कि पूरा समाज बिना कपड़ों के दिखने लगा हो। एक कलाकार की ये सबसे बड़ी जीत है। रेनू यादव बनी भूमि पेडनेकर बेजोड़ हैं। सीओ तेजपूर बने आशुतोष राणा को देखना एक तर्जुबा है, जैसे वो खुद ही किरदार बन गए हों। बलराम त्रिवेदी बने पंकज कपूर को देखकर आप बेबस हो जाते हैं। कृतिका कामरा और दीया मिर्जा भी इस भीड़ की ताकत हैं।

क्यों देखें भीड़? ये फिल्म आपको आपका मुश्किल वक्त याद दिलाएगी। और इसलिए भी दख सकते हैं, क्योंकि इसे देखकर नज़रों पर चढ़ा रंगीन चश्मा भी उतर जाएगा। रेटिंग : 3.5 स्टार।

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