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आपदाओं को न्योता देती हिमाचल में बिना योजना के बन रही इमारतें, मास्टर प्लान, भवन निर्माण नियमों का अभाव

आपदाओं को न्योता देती हिमाचल में बिना योजना के बन रही इमारतें, मास्टर प्लान, भवन निर्माण नियमों का अभाव

प्रजासत्ता ब्यूरो|
हिमाचल प्रदेश के शिमला, सोलन, धर्मशाला, सहित अन्य जिलों में तेजी से हो रहे शहरीकरण से पर्यावरण को लेकर संवेदनशील क्षेत्रों पर दबाव बढ़ रहा है। उदाहरण के तौर पर हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला को लेते हैं। यह शहर पर्यटकों को खूब भाता है। शिमला के विकास से जुड़े योजना मसौदे में कहा गया है कि 70 के दशक में जब योजना बनाई गई थी, तब शहर की कल्पना 25,000 लोगों की आबादी के लिए की गई थी। पर्यटकों की अतिरिक्त अस्थायी आबादी के अलावा वर्तमान में जनसंख्या 2.40 लाख से अधिक है।

सरकारी रिकॉर्ड बताते हैं कि हिमाचल प्रदेश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 97.42 प्रतिशत जमीन धंसने के प्रति संवेदनशील है। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) के सामने प्रस्तुत विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है कि शिमला में 83 प्रतिशत लाइफलाइन बिल्डिंग असुरक्षित हैं।लाइफलाइन इमारतों का मतलब पुलिस स्टेशनों, अग्निशमन केंद्रों, अस्पतालों, बिजली घरों और अन्य ऐसे अहम बुनियादी ढांचे वाली इमारतों से है, जिनका इस्तेमाल आपदाओं के दौरान आपातकालीन मदद पहुंचाने के लिए किया जा सकता है।

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रिपोर्ट में कहा गया है कि शिमला की अंतरिम विकास योजना के अनुसार, 45 डिग्री के कोण वाली ढलानों पर इमारतें बनाने की अनुमति है। हालांकि, इनमें से कई इमारतें 45 डिग्री से ज्यादा की ढलान पर 70 डिग्री के कोण तक बनाई गई हैं। इस दस्तावेज़ के अनुसार, शिमला में ढलान ‘मेटा-स्टेबल’ प्रकृति की हैं। इसका मतलब है कि वे वर्तमान में स्थिर हैं लेकिन कोई भी भौगोलिक बदलाव या बाहरी दबाव जैसे कि बहुत ज्यादा बारिश या उन पर बढ़ा हुआ बोझ इसे बहुत ज्यादा अस्थिर बना सकता है और भूस्खलन जैसी आपदाओं को न्योता दे सकता है।

जानकारों की माने तो मैदानी इलाकों वाली भवन डिजाइन को पहाड़ी क्षेत्रों में इस्तेमाल करना आपदा को बुलाने जैसा है। अवैज्ञानिक डिजाइन से खतरा और ज्यादा बढ़ने की आशंका है। पहाड़ी क्षेत्रों में भवन निर्माण की बात आती है तो मैदानी इलाकों की नकल करने को लेकर होड़ लगी है। ऐसे में ढलान की स्थिरता पर कम ध्यान दिया जाता है जो पहाड़ी इलाकों के लिए एक अलग तरह की चुनौती है।

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समस्या तब आती है जब मिट्टी के प्रकार का विश्लेषण किए बिना निर्माण किया जाता है। समस्या तब और बढ़ जाती है जब ढलान के प्राकृतिक जल निकासी के रास्ते पर घर बनाए जाते हैं। यह और इसी तरह की अन्य संरचनात्मक गड़बड़ियां इसलिए होती हैं क्योंकि विशेषज्ञ अक्सर साइट का दौरा नहीं करते हैं। इसके ताज़ा उधारण धर्मशाला और मनाली सहित कई अन्य क्षेत्रों में देखने को मिल जाते है।

शिमला, सोलन और धर्मशाला के अलावा अन्य पहाड़ी शहरों के लिए विकास की कई योजनाएं तैयार की गई हैं। लेकिन अन्य पहाड़ी शहर भी हैं जो अब आबादी और इमारतों में बढ़ोतरी देख रहे हैं, लेकिन इन जगहों पर भी मास्टर प्लान और रेगुलेशन की कमी है।

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एक्पर्ट की माने तो भारत के अधिकांश हिल स्टेशनों में मास्टर प्लान की कमी है और यह बड़े पैमाने पर अनियोजित और अवैज्ञानिक प्लानिंग का नतीजा है। जो आने वाले समय में किसी बड़े खतरे को न्योता दे रहा है। खासकर भूकंप के मामले में सबसे ज्यादा नुकसान की संभावना और बढ़ जाती है। ऐसे क्षेत्रों में तेजी से हो रहे शहरीकरण को सरकार को नियंत्रित करना चाहिए। साथ ही पहाड़ियों से जुड़े मुद्दों से निपटने के लिए भारत के पहाड़ों के लिए एक अलग मंत्रालय बनाने जैसे कदमों की जरूरत है।
-नोट यह खबर 3 मार्च 2023 को प्रकाशित की गई थी, हालातों को देखकर इसे पुन: प्रकाशित किया गया है

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