Himachal Bhawan Controversy: पर्वतीय राज्य हिमाचल प्रदेश में पिछले काफी समय से सियासत गरमाई हुई है। एक के बाद एक कई ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जिसने हिमाचल प्रदेश की सुक्खू सरकार के नाक में दम कर रखा है। एक विवाद सुलझाता ही नहीं है कि दूसरा बड़ा विवाद जन्म ले लेता है। जहाँ सरकार राजनितिक उठापटक, टॉयलेट टैक्स, समोसा कांड जैसे विवादों से निपट ही रही थी इतने में दिल्ली में स्थित हिमाचल भवन के कुर्क (Himachal Bhawan Controversy) होने की खबरों ने एक बार फिर हिमाचल को सुर्ख़ियों में ला दिया।
दरअसल, विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) इस मुद्दे पर सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन राज्य सरकार ने इस मामले में कुछ अहम तथ्य पेश किए हैं। बीजेपी के शासनकाल में ही इस परियोजना को कंपनी को सौंपा गया था और 2017 से 2022 तक बीजेपी की सरकार रही, लेकिन उस दौरान भी इस मुद्दे पर ज्यादा कदम नहीं उठाए गए थे। इसके बाद 2022 से 2024 तक सुक्खू सरकार ने कोर्ट में इस मामले को लड़ा, लेकिन फैसला कंपनी के पक्ष में आया।
उल्लेखनीय है कि यह मामला (Himachal Bhawan Controversy) साल 2009 से जुड़ा हुआ है, जब हिमाचल प्रदेश की धूमल सरकार ने सेली हाईड्रो प्रोजेक्ट कंपनी को 320 मेगावॉट के हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट का ठेका दिया था। यह प्रोजेक्ट लाहौल स्पीति में लगना था और इसके लिए कंपनी ने हिमाचल सरकार को प्रति मेगावाट 20 लाख रुपये के हिसाब से कुल 64 करोड़ रुपये का अपफ्रंट भुगतान किया था।
इस प्रोजेक्ट के लिए लाहौल स्पीति में बुनियादी सुविधाएं मुहैया करवाने की जिम्मेदारी तत्कालीन राज्य सरकार की थी, लेकिन यह काम नहीं हुआ और स्थानीय लोग भी प्रोजेक्ट का विरोध करने लगे। इसके चलते, कंपनी ने 9 साल बाद इस प्रोजेक्ट को सरेंडर कर दिया और अपनी 64 करोड़ रुपये की राशि वापस मांगी। हालांकि, राज्य सरकार ने इसे लौटाने से इनकार कर दिया और 2018 में कंपनी ने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
अब, हिमाचल हाईकोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए कंपनी के पक्ष में फैसला सुनाया है, और अनुमान है कि ब्याज सहित यह राशि अब तक 150 करोड़ रुपये तक पहुंच चुकी है। जिसके बाद यह विवाद सुक्खू सरकार के गले की फांस बना हुआ है।
इस पूरे मामले में विपक्ष दल भाजपा लगातार सुक्खू सरकार पर कई सवाल उठा रही हैं, लेकिन क्या किसी ने सोचा है कि अगर पूर्व की सरकारों ने इस मामले पर अपना पक्ष मजबूती के साथ रखा होता तो आज जो हालात बने हैं, वह नहीं होते। जिस समय यह प्रोजेक्ट शुरू होना था उस समय प्रदेश में प्रोजेक्ट शुरू ना होता देख कंपनी ने सरेंडर कर दिया और अपने 64 करोड़ रुपये वापस मांगे।
ऐसे में तत्कालीन धूमल सरकार और उसके बाद वीरभद्र सरकार भी इस समस्या का समाधान निकालने में असफल रहीं। इस प्रोजेक्ट को शुरू करवाना धूमल सरकार की विशेष जिम्मेदारी बनती है, क्योंकि यह प्रोजेक्ट उनके कार्यकाल में आबंटित हुआ था। इसके बावजूद, वे इसे सफलतापूर्वक लागू नहीं करा सके।
इसके बाद एक बड़ा सवाल यह उठता है कि जयराम ठाकुर के कार्यकाल में, जब यह मामला न्यायालय में विचाराधीन था, तो प्रदेश सरकार का पक्ष मजबूती से क्यों नहीं रखा गया? यही कारण है कि आज ऐसा निर्णय आया है, जिसने प्रदेश को इस फजीहत का सामना करने पर मजबूर कर दिया।
आज प्रदेश की जो भी स्थिति है, उसके लिए पूर्ववर्ती सरकारें भी उतनी ही दोषी हैं। हालांकि वर्तमान सरकार पर भी जमकर निशाना साधा जा रहा है, लेकिन इस फजीहत के पूर्व की सरकारों की नीतिगत कमजोरियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। खासकर यह कि अगर बीजेपी के शासन में यह प्रोजेक्ट दिया गया था, तो उस समय क्यों कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए।
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