Kullu Dussehra History: भारत में ज्यादातर जगहों पर दशहरा (विजयादशमी) को एक दिन के उत्सव के रूप में मनाया जाता है, जो बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। लेकिन हिमाचल प्रदेश के कुल्लू घाटी में यह परंपरा यहां तक सीमित नहीं रहती। बल्कि कुल्लू दशहरा विजयादशमी के दिन शुरू होता है और फिर पूरे एक सप्ताह तक भगवान रघुनाथ के सम्मान में धूमधाम से मनाया जाता है।
दरअसल, इस विस्तार का कारण कुल्लू की अनूठी परंपरा है, जिसमें घाटी के आसपास के गांवों से सैकड़ों देवी-देवताओं को निमंत्रण देकर उत्सव में शामिल किया जाता है। ये देवी-देवता जुलूस के रूप में ढालपुर मैदान पहुंचते हैं और सात दिनों तक वहां रुककर दैनिक समारोहों में हिस्सा लेते हैं। यह आयोजन स्थानीय आस्था और संस्कृति का अनुपम संगम प्रस्तुत करता है।
उल्लेखनीय है कि हिमाचल प्रदेश में मनाए जाने वाले ऐतिहासिक अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा ने इस बार अपने 365 साल पूरे कर लिए हैं। यह पर्व भगवान रघुनाथ के सम्मान में मनाया जाता है, जिनकी मूर्ति को 1650 ईस्वी में अयोध्या से लाकर कुल्लू लाया गया था। इस ऐतिहासिक घटना की शुरुआत तब हुई जब राजा जगत सिंह को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति के लिए मूर्ति लाने का निर्णय लिया गया।
जानकारों के मुताबिक कहानी की शुरुआत सन 1650 ईस्वी में हुई, जब कुल्लू रियासत के राजा जगत सिंह ने अपनी राजधानी नग्गर से सुल्तानपुर स्थानांतरित की। उस दौरान एक दिन एक दरबारी ने राजा को सूचना दी कि मडोली गांव के ब्राह्मण दुर्गादत्त के पास कीमती मोती हैं। राजा ने मोती की मांग की, लेकिन दुर्गादत्त के पास ऐसा कुछ नहीं था। डर के मारे उसने अपने पूरे परिवार सहित आग में कूदकर जान दे दी। इस घटना से राजा को ब्रह्महत्या का दोष लगा और उन्हें रोग ने घेर लिया।
ब्रह्महत्या के पाप से छुटकारा पाने के लिए राजा के राजगुरु तारानाथ ने उन्हें सिद्धगुरु कृष्णदास पयहारी से सलाह लेने की सिफारिश की। पयहारी बाबा ने सुझाव दिया कि अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर में अश्वमेध यज्ञ के दौरान बनाई गई राम-सीता की मूर्तियों को कुल्लू में स्थापित करना चाहिए। इसके लिए उन्होंने अपने शिष्य दामोदर दास को यह जिम्मेदारी सौंपी। दामोदर दास ने त्रेतानाथ मंदिर में एक साल तक पुजारियों के साथ रहकर पूजा की विधि सीखी।
एक दिन दामोदर दास ने राम-सीता की मूर्तियों को उठाया और हरिद्वार की ओर प्रस्थान किया। इस दौरान अयोध्या का एक सिद्ध पुरुष जोधावर उनके पीछे-पीछे पहुंचा और पूछा कि उन्होंने मूर्तियां क्यों उठाईं। दामोदर दास ने जवाब दिया कि यह मूर्तियां राजा जगत सिंह को पाप से मुक्ति दिलाने के लिए कुल्लू ले जाई जा रही हैं, और भगवान रघुनाथ भी वहां जाना चाहते हैं। संदेह में जोधावर ने मूर्तियां उठाने की कोशिश की, लेकिन वे हिल तक नहीं सकीं। वहीं, दामोदर दास ने आसानी से उन्हें उठा लिया, जिससे चमत्कार का पता चला।
इसके बाद मूर्तियां गड़सा घाटी के मकराहड़, मणिकर्ण, हरिपुर और नग्गर से होकर आश्विन की दशमी तिथि को कुल्लू पहुंचीं। यहां भगवान रघुनाथ की अगुआई में एक भव्य यज्ञ का आयोजन हुआ, जिसमें कई देवी-देवताओं ने हिस्सा लिया। तभी से कुल्लू में दशहरा पर्व धूमधाम से मनाया जाने लगा, जो 1660 ईस्वी से नियमित रूप से आयोजित हो रहा है।
बता दें की विजयादशमी के दिन भगवान रघुनाथ की मूर्ति को रथ में रखकर नगर में शोभायात्रा निकाली जाती है, जो उत्सव की शुरुआत का प्रतीक है। आसपास के गांवों से देवी-देवता पालकियों में सवार होकर कुल्लू घाटी में प्रवेश करते हैं और पूरे सप्ताह ढालपुर मैदान में ठहरते हैं। इस दौरान लोक नृत्य जैसे नटी, पारंपरिक संगीत और मेले रोजाना आयोजित किए जाते हैं। अन्य स्थानों की तरह यहां रावण के पुतले नहीं जलाए जाते। यह उत्सव न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि कुल्लू की सांस्कृतिक धरोहर का भी प्रतीक है।
हिमाचल के कुल्लू का दशहरा पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है, जो कई मायनों में खास है। यहां दशहरे के दौरान न तो रामलीला होती है और न ही रावण, मेघनाद और कुंभकरण के पुतले जलाए जाते हैं। इतना ही नहीं, इस मौके पर यहां आतिशबाजी जलाना भी मना है। इस दशहरे की कहानी और हिमाचल की देव परंपराएं इसे सबसे अलग और सबसे खास होती है।











