सोलन जिला के स्थापना दिवस पर जाने सोलन से जुड़ा इतिहास

प्रजासत्ता|
पहाड़ी श्रृखंलाओं में हिमाचल सर्वाधिक आश्चर्य की जगह है। हिमालय का महत्व केवल इस बात में नहीं है कि वह सबसे ऊंचा है। अपनी असीमित विविधता में भी हिमालय महान है। हिमाचल के 12 जिले हैं,जिनमे से सोलन भी एक जिला है| हिमालय तथा शिवालक में फैली सोलन जनपद की सीमाएं गौरवमय-भूगोल, संरचना, संस्कृति, इतिहास की एक जीती-जागती कहानी बयां करती है| सोलन एक जनपद का नाम मात्र नहीं है। यह एक ऐसे भू-भाग का परिचय करवाता है जिसका आकलन कर पृथ्वी की संरचना, हिमालय की उत्पत्ति, ग्लेशियरों के पदचिन्ह, जीवाष्म रूप में करोड़ों वर्ष पूर्व की वनस्पति, जीव-जंतु की प्रजातियों से साक्षात्कार होता है। पहाड़ों पर मानव के आगमन, मोहनजोदाड़ो, हड़प्पा संस्कृतियों से संपर्क, वेद-पुराणों की उत्पत्ति, सरस्वती नदी
का उद्गम, पांडवों की भ्रमणस्थली, देशी-राजाओं के आगमन, रियासतों की स्थापना, मुगलों की आहट, गोरखों के अधिपत्य, अंग्रेजों की पदचाप, पहाड़ों में रेल के चढ़ने, पहाड़ों को काट कर जीवन रेखाओं के निर्माण की साक्षी धरा रही है।

सोलन जिला राज्य के जिलों के पुनर्गठन के समय एक सितम्बर, 1972 को अस्तित्व में आया। जिला तत्कालीन महासू जिले के सोलन और अर्की तहसीलों और तत्कालीन शिमला जिले के कंडाघाट और नालागढ़ के तहसीलों से बना था। प्रशासनिक रूप से, जिला को चार उप-विभाजन अर्थात में विभाजित किया गया है सोलन में सोलन और कसौली तहसीलों का समावेश है, नालागढ़ में अर्की और कंडाघाट उप-डिवीजनों के न्यायक्षेत्र को शामिल किया गया है। भारत के सर्वेयर जनरल के अनुसार जिले का कुल भौगोलिक क्षेत्र 1,936 वर्ग किलोमीटर है। जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का 3.49 प्रतिशत है और जिले में 9 वें स्थान पर है। सोलन जिला ने करोड़ों वर्षों से प्रकृति, सभ्यता, समाज, संस्कृति के अनेकों उतार-चढ़ाव को देखा है। सोलन का नाम हिमाचल प्रदेश में ही नहीं, बल्कि संपूर्ण भारत व विदेशों में अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इस धरा के कालखंडों को निहारा जाए तो मेरा सीधा संबंध हिमाचल की उत्पत्ति की तारीख को मेरा नीले आकाश के नीचे जन्म हुआ।

सोलन जनपद की अराध्य देवी मां शूलिनी के नाम पर पड़ा है। वर्ष 1972 तक सोलन महासू जिले का हिस्सा रहा। एक सितंबर, 1972 को बाघल, बघाट, कुनिहार, कुठाड़, मांगल, बेजा, महलोग, नालागढ़, क्योंथल के कुछ हिस्से, कोटी को मिला कर एक स्वतंत्र जिले के रूप में प्रकाश में आया। जिला के गठन के वक्त चार तहसीलें अर्की, नालागढ़, सोलन, कंडाघाट तथा सात शहरी निकाय अर्की, नालागढ़, कसौली (छावनी बोर्ड), परवाणू, सोलन, डगशई व सुबाथू (छावनी बोर्ड) थे। प्रशासनिक दृष्टि से आज चार उपमंडल अर्की, कंडाघाट, नालागढ़, सोलन, चार विकास खंड धर्मपुर, कंडाघाट, कुनिहार, नालागढ़ व सोलन हैं। छह तहसीलें अर्की, बद्दी, कंडाघाट, कसौली, नालागढ़ तथा सोलन हैं। वहीं कुठाड़, रामशहर, दाड़लाघाट व ममलीग उपतहसीलें हैं। जनपद में 240 पंचायतें हैं जो ग्राम समाज के सपने को साकार कर रही हैं। 1936 वर्गमील में फैले मेरे जनपद में 2544 गांव बसते हैं। शहरों की संख्या मात्रा आठ है। मेरी जनसंख्या 5,80,320 (2011 जनगणना) जिसमें से 3,08,574 पुरुष व 2,71,566 महिलाएं हैं। गांवों में 4,78,173 व्यक्ति वास करते हैं। साक्षरता दर 82.8
प्रतिशत (पुरुष 89.53 व महिला 75.93 प्रतिशत) है। जिले में अधिकांश लोग कृषि कार्यों से जुड़े हैं। वर्ष 1971 की आबादी के अनुसार जिला सोलन की आबादी 2,61,337 थी। आबादी का घनत्व 174 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर था जो 2011 में बढ़कर 300 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर हो गया है।

जिले का नाम सोलन शहर के नाम से पड़ा है। यह स्थान रियासत की राजधानी बनने पर प्रकाश में आया। अंग्रेजों द्वारा 1815 में गोरखों को पहाड़ों से खदेड़ने के उपरांत उन्हें इन स्थलों की सुंदरता, सामरिक दृष्टि, गर्मियों से बचने के लिए सुंदर पनाहगाह के रूप में पसंद आए और उन्होंने सुबाथू, कसौली,डगशई में छावनियों का निर्माण किया और सोलन के तत्कालीन राजा से सोलन में राइफल फील्ड बनाने के लिए भूमि का अधिग्रहण किया। एंग्लो गोरखा युद्ध के मूकदर्शक दुर्ग, मलौण, बनासर, धारों की धार का किला आज भी उस काल की याद को तरोताजा करते हैं। इन पहाड़ों ने प्रथम स्वतंत्राता संग्राम का विप्लव
वर्ष 1857 में देखा वहीं 1920 में आयरिश सैनिकों ने सोलन में अपने वतन का आजादी के लिए विद्रोह किया। अंग्रेजों की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला की सड़क व रेल मार्ग से जाने के लिए मेरे भू-भाग से ही गुजरना पड़ता है। मुझे इस कारण हिमाचल के प्रवेश द्वार का दर्जा भी हासिल है। मैदानों के साथ मेरा संबंध हजारों वर्षों का रहा है। मेरे जिले की भौगोलिक बनावट अधिकांशतः पहाड़ी है लेकिन नालागढ़ क्षेत्रा मैदानी क्षेत्रा का रूप
माना जाता है। मैं समुद्रतल से 300 मीटर से लेकर तीन हजार मीटर के बीच फैला हूं। करोल पर्वत सबसे ऊंचाई वाला शिखर है।

सोलन को जनपद की संस्कृति, परंपराओं तथा विकास की धुरी माना जाता है। इस शहर तथा जनपद के विकास की कहानी अंग्रेजों के हिमालय क्षेत्रा में आगमन, शिमला को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने तथा हिंदुस्तान तिब्बत मार्ग के बनने से शुरू होती है। इससे पूर्व कसौली, सुबाथू, डगशई, सोलन अंग्रेजों की छावनियां बन गई थीं। 1855 में सोलन के समीप बू्ररी में डायर मिकन (अब मोहन मिकिन) के खुले कारखाने से सोलन को एक नई पहचान मिली। वर्ष 1903 में सोलन होकर शिमला तक रेल मार्ग के निर्माण से जनपद के इर्दगिर्द फैले गांवों, कस्बों के विकास को गति मिली। सोलन, सलोगड़ा, यहां उत्पादित कृषि उत्पादों के लिए मंडी बना। व्यापारियों का आगमन हुआ।

सोलन, कसौली, डगशई, सुबाथू में शिक्षण, स्वास्थ्य संस्थान व देश के अमीर लोगों व अंग्रेजों ने कोठियों का निर्माण किया। 1847 का सनावर स्कूल, 1913 का टीबी सैनिटोरियम धर्मपुर, 1905 में कसौली का पास्चर इंस्टीच्यूट की स्थापना प्रमुख है। वर्ष 1903 से कालका से चलने वाली रेल सोलन जनपद के अधिकांश इलाकों से होकर गुजरती है। इससे आने जाने से पहाड़ों तथा गांवों की तंद्रा वर्षों से टूट रही है। अभी भी रेल मार्ग के इर्दगिर्द बसे गांवों का जीवन रेल की छुक-छुक से समय का अहसास करवाता है।
आजादी के उपरांत हिमाचल के गठन में सोलन के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। 26 जनवरी, 1948 की ऐतिहासिक तारीख को बघाट के राजा दुर्गा सिंह के नेतृत्व में सोलन में हुए राजाओं तथा प्रजामंडल के प्रतिनिधियों के सम्मेलन में नए प्रांत ‘हिमाचल प्रदेश’ का नाम सुझाया गया। इससे पहले बघाट में विद्यालय, संस्कृत विद्यालय खोले गए थे। सोलन जनपद की अन्य रियासतों में भी आजादी के आंदोलन में लोगों की भागीदारी नज़र आने लगी थी। 1857 में कसौली, सुबाथू में आजादी के विप्लव से
इस क्षेत्रा में राष्ट्रीयता तथा देशभक्ति की अलख जगी थी। 1876 में नालागढ़ में वजीर गुलाम कादिर खान के विरुद्ध लोगों का विद्रोह, 1905 में बाघल रियासत के शासकों के विरुद्ध लोगों का विद्रोह 1920 में कुनिहार में राणा के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए
जन प्रतिनिधियों को कारावास जैसी घटनाएं इतिहास में जनपद के निवासियों की स्वतंत्राता आंदोलन में भागीदारी का स्मरण करवाता है।

सोलन जनपद के इतिहास में शिखरों पर स्थित किलों के अवशेष यहां की गौरवगाथा का बखान करते हैं। इनकी दीवारें, ड्योढ़ी व खंडहर हो चुके कुएं, बावड़ियां इस बात का आभास दिलाती हैं कि इनमें किसी वक्त जीवन के राग व सैनिकों के कदमों की आहट गूंजती होगी। गोरखा अध्पित्य के वक्त में बने अनेक किले आज खंडहर बन चुके हैं लेकिन रियासतों में बने किले आज भी वैसे ही वैभवपूर्ण हैं तथा अर्की, नालागढ़ के किलों को व्यावसायिक उपयोग में लाया जा रहा है। अर्की, कुनिहार, नालागढ़ के किलों के
भित्तिचित्रा हिमाचल की समृ( पहाड़ी चित्राकला के जीते-जागते उदाहरण हैं। इस लेख में किलों की ऐतिहासिकता, उपयोगिता तथा इतिहास की बानगी का बखान किया गया है।

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