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हिमाचल में सरकार या सरकार के खिलाफ मुकदमेबाजी का बढ़ता प्रचलन, घातक.

माचल में सरकार में या सरकार के खिलाफ मुकदमेबाजी का बढ़ता प्रचलन, घातक.

प्रजासत्ता ब्यूरो|
हिमाचल में सरकार या सरकार के खिलाफ मुकदमेबाजी का बढ़ता प्रचलन एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है। सरकार और उनकी अफसरशाही कई ऐसे फैसले ले रही हैं। जिनके खिलाफ हाईकोर्ट पहुंचने का अर्थ प्रदेश की न्याय व्यवस्था को बोझिल बनाने के साथ-साथ सरकार के शासन को बाधित करना भी है। इन विडम्बनापूर्ण स्थितियों का बढ़ना न तो सामान्य है, और न ही प्रदेशहित में है।

तबादला, प्रमोशन, नौकरी, नई नियुक्तियां , नई भर्तियाँ , स्वास्थ्य सेवाएं, सार्वजनिक सम्पतियों पर जमीनी विवाद ,के आलावा सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों में सरकार को प्रतिवादी बनाकर उन पर छोटे-छोटे प्रश्नों, कार्य-व्यवस्थाओं एवं निर्णयों को लेकर हाईकोर्ट में मामलें दर्ज होना सही नहीं है। ऐसे मामलों की संख्या बढ़ना चिन्ताजनक तो है ही साथ ही प्रदेश की अस्मिता को धुंधलाने की कुचेष्टा भी है, जिन पर अभी से नियंत्रण करना जरूरी होता जा रहा है।

यदि यह सिलसिला इसी तरह कायम रहा तो शासन करना और कठिन हो सकता है। विकास के कार्यक्रमों को लागू करने की बजाय सरकार इस तरह की मुकदमेबाजी में ही उलझती रहेगी, उधारण के तौर पर बीते दिनों एक मामले में हाईकोर्ट की तरफ से की गई टिप्पणी के अनुसार हिमाचल सरकार सबसे बड़ी मुकदमे बाज है। जो भारी भरकम राशि मुकदमेबाजी पर खर्च कर रही है। इससे सरकारी खजाने पर पानी फिर रहा है। हाई कोर्ट को कहना पड़ा कि सरकारी अधिकारियों को झगड़ालू ढंग से मुकदमेबाजी करने की बजाए अपनी जिम्मेवारियां अपने कंधों पर लेते हुए सही को सही गलत को गलत कहने का साहस जुटाना होगा।

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बता दें कि न्यायाधीश तरलोक सिंह चौहान और न्यायाधीश सत्येन वैद्य की खंडपीठ ने शिक्षा विभाग में डेपुटेशन से जुड़े मामले का निपटारा करते हुए यह टिप्पणी की। उसी तरह कई अन्य मामलों में सरकार को अधिकारियों के रवाइयों की वजह से आए दिन हाईकोर्ट से खरी-खोटी सुननी ही पड़ी है। प्रदेश में जनहित में लिए गए अधिकतर निर्णय, नई भर्तियां, नई नियुक्तियों, और कई अन्य मामले कोर्ट में फंसे हुए हैं।

दुर्भाग्य से पिछले कुछ समय से ऐसा ही रहा है। हिमाचल में सरकार और अफसरशाही में सही समन्वय न होने की वजह से आये दिन कोई न कोई मामला कोर्ट में चला ही जाता हैं।ऐसा लग रहा है कि सरकार की कार्यप्र्रणाली, उसके द्वारा लिये गये निर्णय एवं नीतियों के खिलाफ जंग की एक नई संस्कृति पनप रही हैं। जो किन्हीं शाश्वत मूल्यों एवं बुनियादी प्रश्नों पर नहीं बल्कि भटकाव के कल्पित आदर्शों पर आधारित है।

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हालांकि कुछ मामलों में दायर याचिकाएं तो सरकार और अफसरशाही द्वारा लिए गए गलत निर्णय के खिलाफ न्याय पाने के लिए होती है, तो कुछ ऐसे मामलो में दायर याचिकाओं का एक मात्र मकसद सरकार के काम में अड़ंगा लगाना एवं निर्णय को बाधित करना ही होता है।
अनेक मुद्दों पर सरकार के खिलाफ मुकदमे बहुत बढ़ गए। वहीं अनेक मामलों में बार-बार लोगों की समस्याओं का हल न हो पाना और अफसरशाही के ना सुनने और ना समझने की वजह से परेशान लोगों को काफी प्रभावी ढंग से अदालतों के हस्तक्षेप की मांग करनी पड़ रही हैं। कुछ लोग तो न्यायालय के आदेशों को लागू करवाने के लिए बार-बार विभागों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं।

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वहीँ वर्तमान सरकार और पिछली सरकारों द्वारा कई ऐसे अधिकारियों को सेवा विस्तार दिया है जिनकी छवि भी कोई खास नहीं रही है। अगर सत्ता में बैठे नेताओं और अफसरशाही द्वारा सही निर्णय नहीं लिए जाते तो वह समय दूर नहीं जब आधी जनता कोर्ट में और आधी सड़कों पर होगी। इस लिए शासन और प्रशासन को ईमानदारी और जिम्मेदारी के साथ आपस में समन्वय बना कर सही और जनहित के निर्णय लेने होंगे। जिससे जनता के बीच विश्वास बढे, और लोगों को कोर्ट कचहरी के चक्करों से छुटकारा मिले।

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