Himachal’s Former IAS Interview: हिमाचल प्रदेश, वो पहाड़ी प्रदेश है जिसकी वादियों में ताजगी है, हवाओं में सादगी और मिट्टी में मेहनत की सोंधी महक। लेकिन इन खूबसूरत वादियों के भीतर आज कुछ और भी बह रहा है, बढ़ती चुनौतियों की आहट, बदलाव की दस्तक और व्यवस्था से उठते तीखे सवाल। इन्हीं ज्वलंत मुद्दों पर हिमाचल प्रदेश के पूर्व आईएएस अधिकारी तरुण श्रीधर ने अपनी बेबाक राय रखी है।
वरिष्ठ पत्रकार उदय पठानीया से ‘ब्लैक एंड वाइट ब्रॉडकास्ट’ चैनल के एक विशेष साक्षात्कार में उन्होंने राज्य से जुड़े अनेक गंभीर विषयों पर खुलकर बातचीत की। शिमला में जन्मे वरिष्ठ आईएएस अधिकारी डॉ. तरुण श्रीधर वर्तमान में मंडी जिले के करसोग में निवास कर रहे हैं। उन्होंने अपने 35 वर्षों के लंबे प्रशासनिक करियर में देश और प्रदेश की सेवा विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर रहकर की है।
तरुण श्रीधर कहते हैं, “मैं हिमाचल की रग-रग से वाकिफ हूं, हर जिले में घूमा, लोगों से मिला, उनकी बात सुनी।” उनकी बातों में अनुभव, साफगोई और हिमाचल के लिए जुनून झलकता है। वो कहते हैं, “मैं ये नहीं कहता कि मैं हिमाचल को पूरी तरह जानता हूं, लेकिन हां, इसकी संस्कृति, इसके लोग, इसकी समस्याएं, इनके बारे में मुझे थोड़ा-बहुत अंदाजा है।
तरुण श्रीधर की बातों में एक बात साफ झलकती है, वो हिमाचल को सिर्फ एक जगह नहीं, बल्कि एक जज्बे की तरह देखते हैं। लेकिन साथ ही वो ये भी कहते हैं कि आज हिमाचल कुछ चुनौतियों से जूझ रहा है, और इनके पीछे हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। अपने लंबे और विशिष्ट प्रशासनिक अनुभव के आधार पर उन्होंने न केवल व्यवस्था को समझा है बल्कि उसमें आई गिरावट और संभावित सुधारों को भी बेहद करीब से महसूस किया है।
नेता और अफसर: कौन बिगाड़े, कौन संवारे?
वरिष्ठ पत्रकार उदय पठानीया के सवाल “हिमाचल की समस्याओं की जड़ में कौन है, नेता या नौकरशाही ?, तो तरुण ने बड़े साधारण शब्दों से समझाया, “देखो, ये कोई ब्लैक एंड व्हाइट मसला नहीं है। नेता और अफसर, दोनों का अपना-अपना रोल है। प्रजातंत्र में संतुलन जरूरी है।
अगर अफसर नेता बनने की कोशिश करें या नेता अफसरों की शक्तियां हथियाने लगें, तो सिस्टम चरमराता है।” श्रीधर ने स्पष्ट रूप से बताया कि किस तरह आज की नौकरशाही निर्णय लेने से डरती है, और कैसे राजनीतिक हस्तक्षेप ने प्रशासन की रीढ़ को कमजोर किया है।
इंटरव्यू की शुरुआत में ही उन्होंने स्पष्ट किया कि “हिमाचल अब एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। यहां की मौजूदा आर्थिक, प्रशासनिक और राजनीतिक स्थिति ऐसी है कि अगर समय रहते सुधार नहीं हुए, तो यह राज्य अपनी परंपरागत पहचान और मजबूती खो सकता है।
प्रदेश में ‘प्राकृतिक आपदा’ नहीं, यह हमारी गलतियों का नतीजा है
श्रीधर ने आगे कहा कि आजकल हम प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रहे हैं, लेकिन इन्हें “प्राकृतिक” कहना गलत है। ये हमारी करतूतों का नतीजा हैं, प्रकृति के साथ छेड़छाड़, लालच में बिगड़ा संतुलन, और कंक्रीट के जंगल खड़े करना। हिमालय पर बेरहमी से बनाए ढांचे इसका सबूत हैं।
न्यूटन का सिद्धांत याद कीजिए, हर एक्शन का रिएक्शन होता है। ये आपदाएं प्रकृति का जवाब हैं। मुद्दा ये है कि हम विकास का कौन सा मॉडल चुनें? प्रकृति को सहेजते हुए कैसे तरक्की करें? गलती सिर्फ नेताओं या नौकरशाही की नहीं, हम सबकी है। हम सड़कें, तहसील, मिनी-सचिवालय, मार्केट मांगते हैं। हमारी आकांक्षाएं भी निर्माण पर टिकी हैं। ये निरंतर निर्माण, मैनिपुलेटेड मांगें, और सेक्टर-चालित विकास ही समस्या की जड़ हैं। आत्मचिंतन करें, दोषारोपण बंद करें, और प्रकृति के साथ संतुलित विकास का रास्ता चुनें।
वो एक पुरानी बात याद करते हुए कहते हैं, “पहले PWD में एक हॉर्टिकल्चर विंग होता था। सड़क बनती थी तो साथ-साथ पेड़ लगाए जाते थे। वो विंग अब कहां है? हमने प्रकृति को सहेजने की जिम्मेदारी छोड़ दी।” तरुण जी का मानना है कि विकास जरूरी है, लेकिन वो सस्टेनेबल होना चाहिए। “हमें ऐसा मॉडल चाहिए जो हिमालय को बचाए, न कि उसे तबाह करे।”
श्रीधर ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि हमारा कंस्ट्रक्शन-केंद्रित विकास मॉडल आज हमें भारी पड़ रहा है। सड़कें चाहिए, फोर-लेन की मांग भी जायज है। कई जगहों पर फोर-लेन से फायदा भी हुआ, मगर बर्बादी का सबब भी यही बना। पहाड़ काटकर, प्रकृति से खिलवाड़ कर सड़कें बनाईं, पर क्या थोड़ी ईमानदारी और संवेदनशीलता नहीं बरत सकते? जिस प्रकृति को छेड़ा, उसकी देखभाल भी तो हमारा फर्ज है। विकास जरूरी है, पर प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर, न कि उसे तबाह करके।
मीडिया की कार्यप्रणाली पर भी लगाया प्रश्न चिन्ह
श्रीधर ने आगे कहा कि आज मीडिया, चाहे टीवी चैनल हों, अखबार हों, या सोशल मीडिया 90% राजनीति की सैर कराता है। बीजेपी-कांग्रेस का अध्यक्ष कौन बनेगा, दिल्ली में किसकी मुलाकात हुई, बस यही तमाशा! लेकिन मुख्य मुद्दे, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, शिक्षा का गिरता स्तर, या युवाओं का भविष्य? इनकी बात नहीं होती, सिर्फ लिप-सर्विस!
ये परिपक्व समाज की निशानी नहीं है। मैं भी इस लिप-सर्विस का हिस्सा रहा, मगर हकीकत यही है। पहले हिमाचल में छोटी-छोटी जरूरतों की बात थी, पर अब सालों से ये राजनीतिक बहसबाजी हावी है। हमें जमीनी मुद्दों पर लौटना होगा, न कि सिर्फ जुबानी जमा खर्च में उलझना।
एक्सटेंशन का खेल और नौकरशाही की साख
बात जब नौकरशाही में एक्सटेंशन के चलन पर आई, तो तरुण श्रीधर ने बिना लाग-लपेट के कहा, “एक्सटेंशन लेना और देना, दोनों को सोचना चाहिए। अगर आप एक्सटेंशन लेते हैं, तो कहीं न कहीं आप अपनी साख और आत्मसम्मान का एक हिस्सा खो देते हैं।”
वो कहते हैं कि एक्सटेंशन के लिए नियम हैं, लेकिन वो असामान्य परिस्थितियों के लिए हैं, जैसे चुनाव या आपदा के समय। “लेकिन आजकल तो ये निजी स्वार्थ का खेल बन गया है। कोई रेरा का चेयरमैन बनना चाहता है, कोई और पद के पीछे भागता है। जनता ये सब देखती है और सोचती है कि ये अफसर अपने लिए काम कर रहे हैं।
”वो इकबाल का शेर सुनाते हैं, “खुद ही को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले, खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है।” यानी ऐसा काम करो कि पद तुम्हारे पीछे दौड़े, तुम पद के पीछे नहीं।
उन्होंने आगे कहा कि, हर समाज में बेहतरीन, मध्यम और कमजोर लोग होते हैं, आईएएस भी इससे अलग नहीं। जनता को लगता है कि कुछ आईएएस पदों के पीछे भागते हैं या एक्सटेंशन के लिए लालायित रहते हैं। अगर जनता ऐसा सोचती है, तो हमें आत्मचिंतन करना होगा, कहीं न कहीं कमी हममें है।
सही काम के लिए सही इंसान चुनें। रेरा चेयरमैन हो या कोई और पद, नियमावली देखें, सबसे काबिल व्यक्ति चुनें, चाहे आईएएस हो या न हो। आईएएस ने कोई ठेका नहीं लिया कि हर पद उनका हक है। एक्सटेंशन दो तरह के होते हैं: एक काबिलियत के आधार पर, दूसरा “मेरा आदमी” वाली सियासत।
अगर एक्सटेंशन “हां में हां” के लिए दिया जा रहा है, तो ये सिस्टम को चरमराता है। देने वाले और लेने वाले की नियत पर सवाल उठता है। सही नियत और काबिलियत को प्राथमिकता दें, न कि सौदेबाजी को।
उन्होंने कहा कि ब्यूरोक्रेसी सिर्फ IAS नहीं, क्लास फोर से लेकर टॉप तक सबको मिलाकर बनती है। हर किसी का अपना रोल है, और उसका सम्मान जरूरी है। आप फाइल पर फैसला लेते हैं, लेकिन वो फाइल आपके टेबल तक सम्मान के साथ पहुंचाने वाला भी उतना ही अहम है। सबके योगदान को पहचानें, तभी सिस्टम सुचारू चलेगा।
रोजगार और शिक्षा पर बेबाक राय
हिमाचल में बेरोजगारी और शिक्षा के सवाल पर तरुण जी का जवाब दिल को छू गया। वो कहते हैं, “ये सामूहिक नाकामी है। हमने अपने बच्चों को क्लर्की और पटवारी की नौकरी तक सीमित कर दिया। हमें उन्हें इससे ऊपर उठाना होगा।” वो एक किस्सा सुनाते हैं, “मैं अपने गांव में था, एक लड़की से मिला। वो IIT रोपड़ में केमिस्ट्री में पीएचडी कर रही थी। एक और लड़का मिला, जो बॉम्बे में मल्टीनेशनल कंपनी में काम करता है।
हमारे बच्चे इतने काबिल हैं, बस उन्हें सही मौका और मार्गदर्शन चाहिए।”वो जोर देकर कहते हैं, “सरकार पर निर्भरता छोड़ दो। अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दो, उन्हें बाहर भेजो। हिमाचल के डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेशनल्स की मांग दुनिया भर में होनी चाहिए। हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जो दुनिया की डिमांड के हिसाब से हो, न कि सिर्फ डिग्री बांटने वाली।”
प्रगति का प्रतीक हिमाचल, आखिर क्यों पिछड़ा ?
इस इंटरव्यू में बात करते हुए श्रीधर ने कहा कि हिमाचल को कभी पहाड़ी राज्यों में प्रगति का प्रतीक माना जाता था, शिक्षा, स्वास्थ्य, और विकास में अग्रणी था। 2000 के आसपास, जब उत्तराखंड बना, उन्होंने हिमाचल से सीखने के लिए गोष्ठी बुलाई थी। मगर आज वो दौर गया। हर युग की अपनी चुनौतियां और हकीकतें हैं।
पुराने लोग कहते हैं, “हमारा ज़माना बेहतर था,” पर मैं इस थ्योरी का कायल नहीं। हर दौर में नई समस्याएं हैं, आज का SDM पुराने ज़माने से अलग चुनौतियों का सामना करता है। हम अब भी गर्व करते हैं, पर सच ये है कि दक्षिण भारतीय राज्य विकास में हमसे कहीं आगे निकल गए। उत्तर-दक्षिण का आर्थिक-सामाजिक विभाजन साफ दिखता है।
हम सस्टेनेबल डेवलपमेंट की बात तो करते हैं, पर करते नहीं। सड़कें, पुल, खनन सब जरूरी हैं, मगर बिना सोचे-समझे प्रकृति को छलनी करना गलत है। दुनिया में पहाड़ों पर सड़कें बनती हैं, पर टेक्नोलॉजी और ईमानदारी के साथ, ताकि लैंडस्लाइड न हों। हमारे यहाँ जमीर का खनन हो गया। दिमाग तेज है, पर दिल से नहीं सोचते। मलबा कहाँ फेंकेंगे, इसकी परवाह नहीं।
खनन का मटेरियल सड़क के लिए इस्तेमाल हो सकता है, पर हम अलग परमिट, अलग पैसे की सोच में फंसे हैं। हिमाचल की सबसे बड़ी धरोहर हिमालय है। हमारा विकास मॉडल इसे सहेजने पर केंद्रित होना चाहिए, न कि इसे बर्बाद करने पर। हमारा नाम ही “हिम” से जुड़ा है, फिर भी हम अपनी प्रकृति के प्रति शत्रुवत हैं। इस सोच को बदलना होगा, विकास करें, पर हिमालय को बचाते हुए।
राज्य की वित्तीय स्थिति पर चिंता
उल्लेखनीय है कि हिमाचल की आर्थिक सेहत नाजुक स्थिति में पहुंच चुकी है। राज्य पर बढ़ते कर्ज और घटते संसाधन विकास की गति को प्रभावित कर रहे हैं। “राज्य सरकारें बार-बार ऋण लेकर अपनी वित्तीय जिम्मेदारियों को पूरा कर रही हैं। ऐसे में राज्य की वित्तीय स्थिति पर बात करते हुए श्रीधर ने कहा हमें आत्मनिर्भरता की ओर ठोस कदम उठाने होंगे,”
उन्होंने दो टूक कहा, पहले हिमाचल के नेता दिल्ली में अपने कैडर के अफसरों से मिलकर केंद्र से मदद लेते थे। अब ये रिवाज़ कमज़ोर पड़ गया। भारत सरकार का सिस्टम तय है, मंत्रालयों में कमेटी स्कीम्स की समीक्षा करती है। अगर प्रदेश का सीनियर अफसर जाकर प्रेजेंट करता है, तो 100 करोड़ की स्कीम आसानी से पास हो सकती है। मगर जूनियर को भेजने से जॉइंट सेक्रेटरी का अहम आहत होता है, और स्कीम अटक सकती है।
उन्होंने अपने केंद्र में दिए सेवा कार्यकाल का उदाहरण देते हुए कहा कि, 2009-10 में महाराष्ट्र के सूखे का जायज़ा लेने केंद्र की टीम गई। वहाँ पूरे कैबिनेट ने प्रेजेंटेशन दी, सीनियर अफसर हर कदम पर साथ रहे। नतीजा? उनकी मांग मानी गई। हिमाचल में ऐसा क्यों नहीं? प्रोटोकॉल में उलझकर, CM के दौरे में व्यस्त होकर, हम केंद्र की अहम मीटिंग्स में जूनियर भेज देते हैं। ये सामूहिक नाकामी है।
केंद्र कहता है, “प्रदेश गंभीर नहीं,” और हम कहते हैं, “केंद्र मदद नहीं करता।” आज आत्मनिर्भरता की ज़रूरत है। पहले रिव्यू मीटिंग्स में सिर्फ़ खर्च पूछा जाता था, उपयोग की सार्थकता नहीं। मैंने वित्त और आबकारी सचिव रहते रोज़ रेवेन्यू मॉनिटर किया, 15 मिनट की बातचीत से 40-50 करोड़ का इज़ाफा हुआ। मैनेजमेंट का सिद्धांत है: जो मॉनिटर करो, वो होता है। अगर ट्रांसफर या अपग्रेड पर ध्यान देंगे, तो वही होगा; रेवेन्यू पर ध्यान देंगे, तो वो बढ़ेगा।
ठेकेदार-चालित विकास और निजी स्वार्थ को सार्वजनिक हित से ऊपर रखने से समस्याएँ बढ़ती हैं। प्राथमिकताएँ तय करें, प्रदेश के लिए केंद्र से फंड लाना ज़रूरी है, तो सीनियर अफसरों को वहाँ जाना होगा। प्रोटोकॉल को इरिटेंट न बनाएँ, बल्कि सही दिशा में इस्तेमाल करें।
हिमाचल के लिए तीसरा विकल्प: जनहित में सामूहिक मंच की ज़रूरत
पत्रकार उदय पठानिया के पांच-पांच साल की सरकारों में प्रदेशवासियों की ज़िंदगियाँ खराब करने सवाल पर श्रीधर ने कहा कि प्रजातंत्र में लोग वही चुनते हैं, जो विकल्प सामने होता है। आज सिर्फ़ बीजेपी और कांग्रेस हैं, तीसरा विकल्प कहीं दिखता नहीं। दिल्ली, पंजाब में तीसरा विकल्प उभरा, पर वहाँ भी निराशा ही मिली। ज़रूरी नहीं कि तीसरा विकल्प राजनीतिक दल हो।
उन्होंने कहा कि हिमाचल को चाहिए एक ऐसा सामूहिक मंच, जो हर विचारधारा, बीजेपी, कांग्रेस, कम्युनिस्ट को जोड़े और जनहित की नीतियों को प्रभावित करे। हम अध्यक्ष कौन बनेगा, किस जाति, किस क्षेत्र का होगा, इस पर बहस करते हैं। ये निरर्थक है!
चर्चा होनी चाहिए कि बीजेपी हो या कांग्रेस, प्रदेश के लिए क्या नीतियाँ बनें। सड़कें बनें, पर पहाड़ सुरक्षित रहें, टूरिज्म हो, पर सस्टेनेबल। बौद्धिक लोग एकजुट हों, सरकारों पर दबाव बनाएँ कि ये मुद्दे उनके एजेंडे का हिस्सा बनें। ऐसा मंच चाहिए, जो सबके हित में काम करे, न कि किसी ख़ास समूह या एजेंडे के लिए।
टूरिज्म और सस्टेनेबल विकास
टूरिज्म और उस पर बनाई गई रिपोर्ट पर बात हुई तो तरुण बोले, “मैंने सरकार के लिए एक रिपोर्ट बनाई, बिना पैसा या सुविधा लिए। छह महीने का समय मांगा था, एक महीने में दे दी। लेकिन उसका क्या हुआ, मुझे नहीं पता।” वो कहते हैं, “नूरपुर होटल, ट्यूलिप गार्डन, धर्मशाला का कन्वेंशन हॉलकरोड़ों फूंके, पर बर्बाद हुए।
प्लानिंग और फॉलो-अप की कमी रही। टूरिज्म सस्टेनेबल होना चाहिए। विकास का मॉडल ऐसा हो जो हिमालय को सहेजे।” वो कहते हैं, “O&M मॉडल ठीक है, पर सही तरीके से लागू हो। नूरपुर होटल बर्बाद हुआ क्योंकि जिम्मेदार लोग नहीं थे। सिस्टम में खोट है। किराया बंद हुआ, कार्रवाई नहीं हुई। ये आम आदमी का नुकसान है।”
बेबाक सवालों का बेबाक जवाब
इस खास बातचीत में वरिष्ठ पत्रकार उदय पठानिया ने खुलकर सवाल पूछे, और पूर्व IAS तरुण श्रीधर ने उतनी ही बेबाकी से जवाब दिए। उन्होंने हिमाचल की चुनौतियों पर खुलकर बात की और अपने निजी अनुभव भी साझा किए। लेकिन हमने हिमाचल से जुड़े संवेदनशील मुद्दों को शब्दों में पिरोने की पूरी कोशिश की है। हो सकता है कुछ कमियाँ रह गई हों, लेकिन हमने एक सटीक और संतुलित निष्कर्ष निकालने का पूरा प्रयास किया है।
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