Supreme Court: राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर राज्यपाल और राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए समयसीमा के मुद्दे पर भाजपा शासित राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट में विधेयकों की मंजूरी के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति की स्वायत्तता का बचाव करते हुए अपना पक्ष रखा और कहा कि किसी कानून को मंजूरी अदालत द्वारा नहीं दी जा सकती।
देश के प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के सामने वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने दलीलें रखीं। संविधान पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए एस चंदुरकर भी शामिल हैं।
अधिवक्ता हरीश साल्वे ने कहा कि विधेयकों को मंजूरी देने का अधिकार केवल राज्यपालों या राष्ट्रपति के पास है, तथा इसमें ‘डीम्ड अप्रूवल’ की कोई अवधारणा नहीं है। डीम्ड अप्रूवल को कानूनी तौर पर मंजूरी या अनुमोदन माना जाता है, भले ही स्पष्ट ‘हां’ या औपचारिक अनुमोदन न हो।
साल्वे ने दलील दी, ‘न्यायालय राज्यपालों को विधेयकों पर मंजूरी देने के लिए आदेश-पत्र जारी नहीं कर सकता… किसी कानून को मंजूरी न्यायालय द्वारा नहीं दी जा सकती। किसी कानून को मंजूरी या तो राज्यपालों द्वारा या राष्ट्रपति द्वारा दी जानी चाहिए।’
पीठ इस विषय के संबंध में राष्ट्रपति द्वारा मांगे गए परामर्श पर सुनवाई कर रही है कि क्या न्यायालय राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर विचार करने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समय-सीमा निर्धारित कर सकता है। विभिन्न राज्य सरकारों ने दलील दी कि न्यायपालिका हर मर्ज की दवा नहीं हो सकती।
वरिष्ठ अधिवक्ता एन के कौल, मनिंदर सिंह, विनय नवरे और गुरु कृष्णकुमार ने विभिन्न भाजपा शासित राज्यों की ओर से राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों के समर्थन में दलीलें पेश कीं। तमिलनाडु और केरल को 28 अगस्त को दलीलें पेश करनी हैं और 8 अप्रैल के फैसले का बचाव करना है।
उल्लेखनीय है कि 8 अप्रैल को शीर्ष अदालत की एक अलग पीठ ने अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए फैसला सुनाया कि तमिलनाडु विधानसभा में पारित और 2020 से राज्यपाल के पास लंबित 10 विधेयकों को स्वीकृत माना जाएगा।
वहीँ, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143(1) के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए शीर्ष अदालत से मई में यह जानने का प्रयास किया था कि क्या न्यायिक आदेश राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर विचार करते समय राष्ट्रपति द्वारा विवेकाधिकार के प्रयोग के लिए समयसीमा निर्धारित कर सकते हैं।
बता दें कि राष्ट्रपति का यह निर्णय तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित विधेयकों से निपटने में राज्यपाल की शक्तियों पर उच्चतम न्यायालय के 8 अप्रैल के फैसले के आलोक में आया था।
जानिए किसने क्या दलीलें दी
वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने संविधान के अनुच्छेद 361 का हवाला देते हुए कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं। वे बोले, “न्यायालय केवल निर्णय जान सकता है, न कि इसके पीछे के कारणों की जांच कर सकता है।” साल्वे ने जोर देकर कहा कि राज्यपाल के फैसले न्यायिक समीक्षा से बाहर हैं, और मंजूरी रोकना उनका संवैधानिक अधिकार है, हालांकि इसे ‘वीटो’ कहना गलत होगा।
उत्तर प्रदेश और ओडिशा की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज ने दलील दी कि राष्ट्रपति और राज्यपाल को फैसले लेने की स्वतंत्रता और मंजूरी देने का पूरा विवेक है। उन्होंने कहा, “जब अनुच्छेद स्पष्ट हैं, तो अदालतें समय-सीमा नहीं थोप सकतीं।” गोवा की ओर से विक्रमजीत बनर्जी ने तर्क दिया कि ‘डीम्ड अप्रूवल’ की कोई संवैधानिक अवधारणा नहीं है, और राज्यपाल की मंजूरी के बिना प्रक्रिया अधूरी रहती है।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने ‘डीम्ड अप्रूवल’ को कानूनी आधारहीन कल्पना बताया, लेकिन इसे स्थिति के आधार पर माना जा सकता है। बनर्जी ने कहा कि ब्रिटिश संविधान में यह था, पर भारतीय संविधान में नहीं। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अनुच्छेद 198(5) का हवाला देकर कहा कि कुछ प्रावधानों में समय-सीमा है, जैसे 14 दिन में धन विधेयक को मंजूरी। छत्तीसगढ़ की ओर से महेश जेठमलानी ने 8 अप्रैल के फैसले पर सवाल उठाया, जो अनुच्छेद 200 में नहीं था।
साल्वे ने अंतर स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति केंद्र की सलाह पर काम करते हैं, जबकि राज्यपालों के पास व्यापक शक्तियां हैं, जिनमें मंजूरी रोकने का अधिकार शामिल है। उन्होंने कहा, “हमारा संघवाद सीमित है, और उम्मीद है कि संवैधानिक पदाधिकारी विवेक से काम लेंगे।” अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के लिए कोई समय-सीमा नहीं है, और यह प्रक्रिया राजनीतिक विचार-विमर्श पर निर्भर हो सकती है, जो 15 दिन से लेकर 6 महीने तक ले सकती है।












