Surkanda Devi Temple: उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले में स्थित सुरकण्डा देवी मंदिर एक ऐसा पवित्र और बेहद आकर्षक धार्मिक स्थल है, जहाँ तक पहुँचने के लिए कद्दूखाल से लगभग 3 किलोमीटर की एकदम खड़ी चढ़ाई करनी पड़ती है। यह चढ़ाई कठिन जरूर लगती है, लेकिन ऊपर पहुँचकर दिखाई देने वाली हिमालयी चोटियों की भव्यता, शांत वातावरण और माता के दर्शन इस पूरी यात्रा को यादगार बना देते हैं।
सुरकण्डा देवी मंदिर की पौराणिक कथा
सुरकण्डा देवी मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है। इसकी कथा सती के आत्मदाह और भगवान शिव के तांडव से जुड़ी हुई है। पौराणिक कथा के अनुसार, जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में अपमानित होने पर हवनकुंड में आत्मदाह कर लिया, तब क्रोधित और दुःखी शिवजी सती के जले हुए शरीर को कंधे पर उठाकर समस्त सृष्टि में तांडव करने लगे। सृष्टि का संकट देखकर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के 51 टुकड़े कर दिए, ताकि शिवजी शांत हो सकें। जहाँ-जहाँ सती के अंग या आभूषण गिरे, वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ स्थापित हो गए।
सुरकण्डा देवी मंदिर में माँ सती का सिर (कण्डा) गिरा था, इसलिए इसे **सुरकण्डा** (सुंदर सिर वाली) कहा जाता है। स्थानीय मान्यता यह भी है कि यहाँ माता का मस्तक गिरा था, जिससे स्थान का नाम “सुरकण्डा” पड़ा।
एक दूसरी लोकप्रिय कथा के अनुसार, बहुत प्राचीन समय में इस क्षेत्र में एक राक्षस रहता था जो गाँववालों को बहुत तंग करता था। लोगों ने माँ दुर्गा से प्रार्थना की। तब माँ ने शक्ति रूप धारण कर उस राक्षस का वध किया। वध करने के बाद माँ यहीं पहाड़ी पर विराजमान हो गईं। उसी समय से यहाँ माँ सुरकण्डा के रूप में पूजी जाने लगीं।
मंदिर का नाम और चमत्कार
स्थानीय लोग बताते हैं कि जब माँ का सिर यहाँ गिरा था, तब पूरा पर्वत सुंदर प्रकाश से जगमगा उठा था, इसलिए इसे “सुरकण्डा” नाम मिला। यहाँ आने वाले श्रद्धालु बताते हैं कि माँ के दर्शन मात्र से मन को गजब की शांति और शक्ति मिलती है। नवरात्रि में यहाँ भारी मेला लगता है और हजारों यात्री खड़ी चढ़ाई चढ़कर माँ के दर्शन करते हैं।
माँ सुरकण्डा को स्थानीय लोग अपनी कुलदेवी भी मानते हैं और हर मनोकामना पूरी होने पर यहाँ बलि (बकरे की) और घंटी चढ़ाने की प्रथा है। मान्यता है कि जो भी सच्चे मन से माँ को पुकारता है, माँ उसकी पुकार अवश्य सुनती हैं।
कैसे पहुंचे सुरकण्डा देवी मंदिर
सुरकण्डा देवी मंदिर तक पहुँचने के दो प्रमुख मार्ग हैं। पहला मार्ग ऋषिकेश से चंबा होकर जाता है। ऋषिकेश से सुरकण्डा की कुल दूरी लगभग 80 किलोमीटर होती है और चंबा से कद्दूखाल तक बस या छोटी गाड़ियाँ आसानी से उपलब्ध रहती हैं।
दूसरा मार्ग देहरादून से मसूरी और धनोल्टी होते हुए कद्दूखाल तक पहुँचता है। यह रास्ता भी काफी सुंदर माना जाता है। कद्दूखाल से मंदिर तक लगभग 3 किलोमीटर पैदल चलकर जाया जा सकता है या फिर रोपवे से भी पहुँचा जा सकता है, जिसकी टिकट कीमत करीब 185 रुपये है। श्रद्धालु अक्सर पैदल मार्ग चुनते हैं ताकि प्राकृतिक सौंदर्य और आध्यात्मिक अनुभव दोनों का आनंद ले सकें।
कद्दूखाल मसूरी से लगभग 40 किलोमीटर और चंबा से लगभग 25 किलोमीटर दूर स्थित है। यदि आप धनोल्टी या कानाताल में रुक रहे हैं, तो वहाँ से भी सुरकण्डा देवी मंदिर तक पहुँचना बहुत आसान है।
यह पूरा क्षेत्र धार्मिक ऊर्जा और प्राकृतिक सुंदरता से भरा हुआ अद्भुत अनुभव प्रदान करता है। हिमालय की ऊँची चोटियों के बीच माँ सुरकण्डा का आशीर्वाद लेने आने वाले श्रद्धालुओं के लिए यह यात्रा सिर्फ तीर्थ नहीं, बल्कि एक आत्मिक सफर बन जाती है। अगर आप उत्तराखंड घूमने का प्लान बना रहे हैं, तो सुरकण्डा देवी मंदिर को अपनी सूची में जरूर शामिल करें। जय माता दी!
बता दें कि सुरकंडा देवी ट्रेक उन ट्रेक में से एक है जिसे जीवन भर के लिए यादगार बनाने के लिए आपको ज़रूर करना चाहिए। यह स्थान उत्तराखंड के धनोल्टी, कनाताल से लगभग 8 किलोमीटर और चंबा से लगभग 22 किलोमीटर दूर स्थित है। यह ट्रेक सुरकंडा देवी मंदिर के कारण प्रसिद्ध है , जिसकी एक हिंदू पौराणिक कथा है। सुरकंडा देवी मंदिर कनाताल के इतिहास के अनुसार, यह मंदिर भारत भर में स्थित 51 शक्तिपीठों में से एक है, जो देवी सुरकंडा को समर्पित है। इस मंदिर से हिमालय की चोटियों का 360 डिग्री का मनोरम दृश्य दिखाई देता है और यह अपनी वास्तुकला और स्थान के लिए प्रसिद्ध है।











