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त्याग,तप,समर्पण और वैदुष्य की प्रतीक : नारी

Tek Raj
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✍️डॉ. सुरेन्द्र शर्मा। शिमला
‘नारी’। इस शब्द में इतनी ऊर्जा है, कि इसका उच्चारण ही मन-मस्तक को झंकृत कर देता है। इसके पर्यायी शब्द स्त्री, भामिनी, कांता आदि हैं और इसका पूर्ण स्वरूप मातृत्व में विकसित होता है। नारी, मानव की ही नहीं अपितु मानवता की भी जन्मदात्री है, क्योंकि मानवता के आधार रूप में प्रतिष्ठित सम्पूर्ण गुणों की वही जननी है। जो इस ब्रह्माण्ड को संचालित करने वाले विधाता है, उसकी प्रतिनिधि है नारी। अर्थात् समग्र सृष्टि ही नारी है, इसके इतर कुछ भी नही है। वह ईश्वर की अनुपम कृति है, रचना है जो संसार में प्रेम दिव्यता, संवेदना, ममता, करुणा का संचार करती है, वह मातृत्व व वात्सल्य की विलक्षण विभूति है, जो ईश्वर का प्रतिनिधित्व करती है, नारी की मूल प्रवृत्ति आध्यात्मिक होती है, नारी में आत्मिक शक्तियों की बहुलता के कारण वह दिव्य शक्ति की अधिक अधिकारिणी बनी है। शास्त्रों में कहा है- दस उपाध्यायों से एक आचार्य श्रेष्ठ है, सौ आचार्यों से एक पिता श्रेष्ठ है, हजार पिताओं से एक माता उत्तम है।

किसी भी सभ्य समाज अथवा संस्कृति की अवस्था का सही आकलन उस समाज में स्त्रियों की स्थिति का आकलन करके ज्ञात किया जा सकता है। विशेष रूप से पुरुष सत्तात्मक समाज में जहां स्त्रियों की स्थिति सदैव एक-सी नहीं रही। हर युग में नारी की स्थिति परिवर्तित हुई है। कभी समाज ने उसकी प्रशंसा की है तो कभी उसे दासी समझकर उसकी अवहेलना की है। वैदिक युग में स्त्रियों को देवी तुल्य माना गया है । उन्हें उच्च शिक्षा पाने का अधिकार था, वे याज्ञिक अनुष्ठानों में पुरुषों की भांति सम्मिलित होती थीं। वैदिक युग में ब्रह्मवादिनी व सद्योवधु नारी के दो रूप प्रचलित थे, दोनों अत्यन्त गौरवशाली थे, यज्ञ करना कराना, वेदपाठ करना, वैदिक ऋचाओं का संधान, निर्माण करने वाली ऋषिकायें ये सभी कार्य ब्रह्मवादिनी नारी करती थी। श्रेष्ठ संस्कारवान गृहिणी, साध्वी स्वभाव, परिवार को अपने संस्कार व सद्गुण से सींचकर स्वर्गोपम बनाने वाली, बालकों को संस्कारवान बनाकर राष्ट्र के लिए संस्कारवान, चरित्रवान नागरिक गढ़ने वाली महिला सद्योवधू नारी कहलाती थी। मनुस्मृति में लिखा है –

“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता:।
यत्रे तास्तु न पूज्यंते सर्वास्तत्राफलः क्रिया।।”

अर्थात : जहां नारी की पूजा होती है। वहां देवता निवास करते है। यदि ईश्वर प्रकाश पुंज है, तो नारी उसकी किरण, जो प्रकाश को चारों और बिखेर देती है। यदि ईश्वर शब्द है, तो नारी उसका अर्थ। नारी-पुरूष एक-दूसरे के पूरक है। एक के बिना दूसरे का अभीष्ट प्राप्त नहीं हो सकता। हिन्दू आदर्श के अनुसार पत्नी को अर्धांगिनी कहा गया है। वह लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा एंव काली आदि रूपों में धन, विद्या, शांति तथा शक्ति का प्रतीक मानी गई है। नारी को करूणामई, ममतामई, वात्सल्यमई जैसे अनेक अलंकारों से विभूषित किया गया है। पहले नारी एवं पुरूष क्रमशः हव्वा व आदम जाति के युग से नारी पुरूष के साथ सहचारिणी का जीवन और सहधर्मिणी का जीवन यापन करती है। शास्त्रोक्त कथन है:-

काव्येषु मंत्री, कर्मेषु दासीं
भोज्येषु माता, रमणेषु रम्भा
धर्मानुकूला क्षमया धरित्री
भार्य्या चा षड्गुण्यवती च दुर्लभा।

अर्थात- एक पत्नी प्रत्येक कार्य में मंत्री के समान सलाह देने वाली, सेवादि में दासी के समान काम करने वाली, भोजन कराने में माता के समान, शयन के समय रम्भा के समान सुख देने वाली, धर्म के अनुकूल तथा क्षमा जैसे गुणों को धारण करने में पृथ्वी के समान छः गुणों से युक्त स्त्री होती है।

आदिकाल से ही सृष्टि के निर्माण और संचालन में नारी की मूख्य भूमिका रही है। मनुष्य की सभ्यता एवं संस्कृति के विकास का मूल आधार नारी को ही माना जाता है । नर और नारी सृष्टि के दो मूलभूत तत्व हैं। दोनों के सहयोग से ही सृष्टि की रचना होती है । प्रजनन एवं वंश वृद्धि में दोनों का समान रूप से सहभागिता रहती है और यह महत्वपूर्ण कार्य भी है। गर्भाधान से लेकर संतान का जन्म एवं उसके पालन पोषण का कार्य स्त्री ही करती है। इसलिए नारी को सृष्टि का आधार माना गया है। समस्त विश्व की नारी मूल उद्भव में शक्ति का प्रतीक है। इतनी विशेषताओं के बाद भी स्त्री को समाज में वह दर्जा नहीं मिला जिसकी वह अधिकारी है। संपूर्ण समाज व्यवस्थाओं का निर्माण पुरूषों द्वारा होने के कारण नारी की भूमिका दोयम दर्जे की रही है। आदिकाल से लेकर आज तक स्त्री द्वारा किए गए प्रगति सहभागिता, त्याग और बलिदान का इतिहास देखने को मिलता है। वैदिक संस्कृति और सभ्यता निर्माण में नारी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उस काल में स्त्री के प्रति समान दृष्टिकोण अपनाया जाता था । युवक और युवतियों का प्रेम और मिलन सामान्य बात थी। आशारानी ब्योरा के अनुसार- “धन की देवी लक्ष्मी ज्ञान की देवी सरस्वती और शक्ति की देवी दुर्गा, से क्या अर्थ निकलता है ? अवश्य ही प्राचीन भारतीय नारी इन सब शक्तियों की अधिकारिणी रही है। ऋग्वेद में सरस्वती को वाक शक्ति कहा गया है। जो उस समय की नारी की कला और विद्वता का परिचायक है। अर्धनारीश्वर कल्पना उसके समान अधिकार की भी पुष्टि करती है ।” उत्तर वैदिक काल में मनुष्य का ध्यान आनंद से हटकर तपस्या की और जाने लगा और नारी को सफलता में बाधक मानकर उसकी उपेक्षा की जाने लगी। इस युग में कन्याओं का उपनयन (ब्रतबंध) होता था । उपनिषद और सूत्रकाल में बहुपत्नी प्रथा के कारण परिवारों में विभिन्न वर्गों की स्त्रियाँ एक ही पुरूष की पत्नी बनकर रहती थी। विवाह के आठों प्रकार इस युग में प्रचलित हो गयी थी। स्त्री शोषण के लिए आज कौन लोग कौन-कौन सी स्थितियाँ दोषी है ? स्वयं नारी उन स्थितियाँ के लिए कितनी जिम्मेदार है ? उनकी सही भूमिका क्या हो कुछ भी तो स्पष्ट नहीं है ?

स्त्री साक्षात शक्ति है। सृष्टि के विकास क्रम में उसका महत्वपूर्ण स्थान है। वह सौंदर्य, दया, ममता, भावना, संवेदना, करुणा, क्षमा, वात्सल्य, त्याग एवं समर्पण की प्रतिमूर्ति है। इन्हीं गुणों के कारण उसे देवी कहा जाता है।“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता”: अर्थात् जहाँ नारियों को मान सम्मान होता है, वहाँ देवताओं का वास होता है। प्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक भारतीय स्त्रियों की स्थिति में काफी उतार चढ़ाव आए हैं। वैदिक युग में नारी का जीवन काफी उन्नत एवं परिष्कृत था। ऋग्वेद में स्त्री को यज्ञ में ब्रह्रा का स्थान ग्रहण करने योग्य बनाया है। रामायण और महाभरत काल में स्त्रियों का वर्णन विदूषियों के रुप में कम, गृहस्वामिनी के रुप में अधिक मिलता है। आधुनिक नारी बाहरी तौर पर काफी आगे पहुँची है, लेकिन जितना पहुँचना चाहिए था वहाँ तक नहीं पहुँच पाई है। स्त्री-विमर्श के युग में स्त्री की स्थिति में आये सब से महत्वपूर्ण परिवर्तन यह है कि वह पुरुष के समान ही जीवन के विभित्र क्षेत्रों में कार्यरत है, लेकिन इसके लिए उसे भीतर और बाहर दोनों ओर से टूटना पड़ता है। वह दिन भर नौकरी करके घर लौटती है, तो उसे पारिवारिक दायित्व भी निभाना पड़ता है।
सुप्रसिद्ध हिन्दी साहित्यविद जयशंकर प्रसाद कृत कामायनी (लज्जा सर्ग) की पंक्तियां द्रष्टव्य है :

नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास रजत नग पग तल में
पीयूष श्रोत सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में ।

आज स्त्री समाज के समुचित विकास के लिए पुरुषों के कन्धे में कंधा डालकर आगे बढ़ रही है। इसके द्वारा स्त्री अपनी अलग पहचान, अस्मिता ढूँढ रही है। नारी चेतना नारी अस्मिता से जुड़ा अहसास है। स्त्री चेतना में सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक क्षेत्र में दबी नारी का विरोध और उसके बाहर आने का प्रयास भी है। पुराने काल में स्त्री का आदर मिलता था। कालान्तर में नारी की स्थिति में कमज़ोरी होती गई। लेकिन स्त्री शिक्षा के फलस्वरूप सामाजिक कुप्रथाओं के विरुद्ध आवाज़ उठाने की क्षमता उसमें उभर आई। घर की चार दीवारें तोडकर स्त्री अपना अस्तित्व खोजने का धैर्य दिखाने लगी। वह वर्तमान समाज में अपनी अस्मिता के प्रति सचेत है। फिर भी इस पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्री अब भी पीड़ित है और दलित भी। नारी का पति, पुत्र, परिवार और समाज द्वारा अलग अलग तरीके से शोषण होता है। स्त्री इसका खिलाफ करे तो समाज में यह अनर्थ हो जाएगा। मैत्रेयी पुष्पा जी ने चाक की भूमिका में इस प्रकार कहा है— “पर सुन मेरी बच्ची! अपनी कटी हुई हथेलियाँ न फैलाया, उस बनाने वाले के सामने की पिछली बार बनाते समय जो भूल की थी उसे सुधार ले! नहीं तुझे फिर वही बनना है! फिर औरत! सौ जन्मों तक औरत जब तक मेरे हिस्से का आसमान तेरे और सिर्फ तेरे नाम न कर दिया जाय।”

आज की नारी परिवार पर निर्भर नहीं है बल्कि परिवार स्वयं उस पर निर्भर है वह परिवार का पालन-पोषण कर रही है। साहित्य के क्षेत्र में तो स्त्री ने बड़े धमाके के साथ प्रवेश किया है। पुरुष व समाज की पुरानी मानसिकता का भंजन किया है। आज महिला किसी प्रकार की मोहताज नहीं हैं। बल्कि उसने नये सम्बन्धों के व्याकरण के आधार पर एक नये सम्बन्धशास्त्र का निर्माण किया है और उसकी छवि लगातार एक महिला सशक्तिकरण के रूप में सामने आ रही है। इस प्रकार २१ वीं सदी की स्त्रियाँ अपनी पहचान, स्वतंत्रता और अधिकारों के बारे में सोचने लगी हैं। स्त्रियाँ अब सांसारिक मुद्दों से ऊपर उठकर लिख रही हैं। उनका लेखन चूल्हे-चौके, आपसी रिश्ते, द्वेष, प्रेम आदि सांसारिक बातों से काफी ऊपर उठ चुका है। विभिन्न मुद्दों पर वे अपने विचार बेबाकी से व्यक्त कर रही हैं। विशेष बात यह है कि इस सदी की कविता में स्त्री-विमर्श देहवादी विमर्श न बने, इस ओर भी ध्यान दिया जा रहा है। प्रज्ञा रावत की ‘एक औरत का बीजमंत्र’ कविता के माध्यम से २१ वीं सदी की नारी को एक मंत्र ही मिला जो इस प्रकार है:-

“जितना सताओगे, उतना उलूंगी
जितना दबाओगे, उतना उगूंगी
जितना बाँधोगे, उतनी निकलूंगी
जितना अपमान करोगे,
उतनी ही सम्मानित होऊंगी।”

नारी शक्ति को उजागर करते हुए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने अपनी एक कविता ‘कविता की पुकार’ में कहा है :-

नारी शक्ति, नारी धूप-छाँव है।
जानना हो विश्व को,
तो नारियों के प्राण पढ़ो,
भागना हो विश्व से तो
नारी तेज़ नाव है।
और नर भी न नर ठेठ है।
शंकित, सजग, स्याद्वादी, अनेकान्तवादी,
कोई ‘फास्ट’, कोई ‘हैमलेट’ है।
आखिर मनुष्य और क्या करे?
जितना ही ज़्यादा हम जानते हैं,
लगता है, आप अपने को उतना ही कम,
उतना ही कम पहचानते हैं।

अपने त्याग, तप, समर्पण, वैदुष्य आदि दिव्य गुणों से घर, परिवार,समाज और राष्ट्र को अलंकृत करने वाली ‘नारायणी’ जो ‘जीव’ से, लेकर ‘ब्रह्म’ तक को अपने उदर में धारण करके सम्पूर्ण ब्रह्मांड का परिपोषण करती है उन माँ ‘पराम्बा’ की सूक्ष्मस्वरूपा ‘मातृ शक्ति’ के सम्मान,स्वाभिमान और उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन को समर्पित अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं ..!!!

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