तृप्ता भाटिया।
एक छोटी सी नौकरी में हूँ। एक सप्ताह के बाद एक ऑफ मिलता है। मेडिकल साइंस के अनुसार ह्यूमन बॉडी की एक बायलॉजिकल क्लॉक होती है जिसके मुताबिक बॉडी की सेंसटिविटी रेस्पॉन्स करती है। यानी सोना, खाना, टहलना यह सब एक नियत समय पर होते हैं तभी शरीर एक स्मूथ सिस्टम के साथ परफॉर्म करता है। आजकल नौकरी ने मेडिकल साइंस को दरकिनार कर रखा है। ऐसा नही है कि मैं अकेली ही इस शेड्यूल को फ़ॉलो कर रही हूँ क्योंकि ढेर सारे लोग ऐसी नौकरी कर रहे हैं। लेकिन कुछ लोगों की फ्लेक्सिबिलिटी काफी अच्छी होती है और वे इस शेड्यूल में भी खुद को बेहतर तरह से ढाल लेते हैं। मगर हम जैसों के साथ बड़ी दिक्कत है जिनका स्वास्थ्य साथ नहीं देता बहुत सारी बीमारियों के साथ झूझ सी रही हूँ। जब से समझदार हुई हूँ नींद के साथ हमेशा अनबन रही है। कभी खूब आती है, कभी बिलकुल नही आती। अकसर कमरे में अंधेरा करके घण्टों नींद के इंतजार में गुजार देती हूँ। मेरी वैचारिकता और बुद्धिमत्ता प्रभावित हुई है यहाँ आने के बाद। मैं पहले की अपेक्षा नैरो थिंकिंग वाली इंसान हो गई हूँ शायद। व्यावहारिकता में भी कमी आई है। सामाजिक जुड़ाव भी क्षीण हुआ है। कुछ लोगों का कहना है कि घमंडी हो गई हूँ। कुछ के मुताबिक अपनी दुनिया में मस्त रहती हूँ, जबकि मस्ती से कोसों दूर हूँ। घमण्ड तो खैर क्या ही करेगा मुझ जैसा इंसान जिसने मौत को इतने करीब से देखा हो कि उसे जीवन दर्शन का ठीक-ठाक ज्ञान हो गया हो। जिम्मेदारियों से कभी पीछा न छुड़ा पाने की आदत मुझे और अधिक जिम्मेदार बनाती चली गई। घर से लेकर नौकरी तक मैं अपने काम में मौन मेहनत और जिम्मेदारी निभाती हूँ। समाज के प्रति भी जिम्मेदारी छूट-पुट ही निभा रही हूँ जिसका बेहद अफसोस है। यहाँ फेसबुक पर भी अब लोगों को चुपके से पढ़ लेटी हूँ और कुछ लिख के ज़िन्दगी को नया मुकाम देने को कोशिश में निकल जाती हूँ। मेरी नौकरी मेरा व्यकितगत चुनाव है और मुझे दो वक्त की रोटी और औसत वेतन दे रही है इसलिये नौकरी को कोसने वालों से अजीब सी चिढ़ होती है। मैं एक बिखरे हुये परिवार का अंश हूँ इस वक़्त जिसे मेरे अपने आशाभरी निगाहों से देखते रहते हैं। मैं कभी-कभी जीवन की विषमताओं पर बेचैन हो उठती हूँ और फिर मौन हो जाती हूँ। ऐसा लगता है जैसे सबकुछ ठहर गया है। संसाधन हैं, मगर खुशियाँ नही हैं। नौकरी आपको सुविधाएँ तो देती है मगर सुकून छीन लेती है। हो सकता है कुछ लोग मुझे असभ्य लोगों की सूची में रखते हों लेकिन सच तो यह है कि मैं अव्यवस्थित दिनचर्या की झुंझलाहट भरी प्रतिक्रिया हूँ। मेरी यह बात वही लोग समझ सकते हैं जो मेरे बहुत अपने हैं वरना दुनिया का क्या है, वह तो आपको जाने बिना परसेप्शन बना लेती है आपके लिये। लोग तुरन्त निर्णायक होने लगते हैं आपके विषय में। लोगों को सुनना अच्छा लगता है मुझे मगर उनसे बात करना उतना अच्छा नही लगता। रिश्ते जोड़ने की चाह एकदम मर सी गई है भीतर से। सबकुछ बेहद जटिल हो गया है। लेकिन इन सबके बावजूद मुझे यह भी मालूम है कि…
चलना जीवन की कहानी,
रुकना मौत की निशानी…😊
कौन हूँ मैं? मैं अव्यवस्थित दिनचर्या की झुंझलाहट हूँ
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